Friday, April 8, 2011

भ्रष्टाचार और जन-लोकपाल विधेयक

आज कम से कम इस विषय पर अपनी बात रखने के लिये किसी प्रस्तावना की जरुरत नही है।  भ्रष्टाचार से हम सभी ग्रस्त भी है और त्रस्त भी...पर हम सभी अब तक इसे अपनी नियति मान कर जो हो रहा है होने दो जब हम पर आयेगी तब सोचेगे की तर्ज़ पर  जाने दे रहे थे लेकिन " शत शत नमन श्री अन्ना हाज़ारे जी को...." कि उन्होने याद दिलाया कि अगर अब भी नही जागे तो वो दिन ज्यादा दूर नही जब हमारे अपने नेता(?) हमे विदेशियो से ज्यादा लूट चुके होगे....

खैर मुझे आज इस सन्दर्भ मे हमारे प्रधानमन्त्री का एक कथन याद आ रहा है...."गठबंधन धर्म की अपनी मजबूरियां हैं", चलिये थोडी देर के लिये ये मान  भी ले तो क्या हमारे सुशिक्षित तथा अत्यधिक अनुभवी प्रधानमन्त्री जी को नही पता की गठबंधन का धर्म "राजधर्म" से बड़ा नही है और इस देश की आम जनता ने उन्हे प्रधानमन्त्री "राजधर्म"   निभाने के लिये चुना है। गठबंधन का डर बिल्कुल निराधार है। यदि सचमुच कोई सच्चा नेता आज प्रधानमंत्री होता तो गठबंधन पद्धति को इस समय वह जड़-मूल से उखाड़ फेंकता। यदि आज से तीन-चार माह पहले ही राजा को गिरफ्तार कर लिया जाता तो क्या होता? द्रमुक गठबंधन से निकल जाती। उसी वक्त गठबंधन तोड़कर चुनाव करवा दिए जाते तो अकेली कांग्रेस को शायद 350 से ज्यादा सीटें मिलतीं। मनमोहन सिंह इतिहास पुरुष बन जाते, लेकिन उन्होंने जो रास्ता चुना, वह उन्हें इतिहास का पुरुष बना देगा। कैसी विडंबना है इस समय गठबंधन का जो संकट है, वह भ्रष्टाचार के कारण नहीं है, सीटों के बंटवारे के कारण है। हमारी पार्टियों को भ्रष्टाचार की चिंता नहीं है, कुर्सी की चिंता है, और जब से "श्री अन्ना हाज़ारे जी" को आम समर्थन मिलने लगा सारी पार्टियों को अचानक ही भ्रष्टाचार की चिंता सताने लगी है।

अचानक ही सामने आये भ्रष्टाचार के मामलों में प्रधानमंत्री ने कहा है कि वे कहीं आंशिक दोषी हैं और कहीं पूर्ण दोषी! इतना कह देना काफी है क्या? विपक्ष की नेता प्रधानमंत्री की इस विनम्रता पर मुग्ध हैं तो ये उनका आपसी मामला है। लेकिन जरा देश के करोड़ों लोगों से पूछिए, अपनी ही पार्टी के लोगों से पूछिए और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं से भी पूछिए। सब के सब ठगा-सा महसूस कर रहे हैं। प्रधानमंत्री का चेहरा आजकल जब टीवी चैनलों पर दिखाई पड़ता है तो उनकी तरफ देखने की बजाय जरा दर्शकों के चेहरों की तरफ देखिए। आप दंग रह जाएंगे। उनके चेहरों पर सहानुभूति नहीं, जुगुप्सा के भाव तैर रहे होते हैं। स्वयं प्रधानमंत्री दया के पात्र-से दिखाई पड़ते हैं। असहाय, निरुपाय, परम कारुणिक! ऐसा क्यों हो रहा है? इसका जबाब शायद ये है कि....
श्री मनमोहन सिंह नेता नहीं हैं, केवल अर्थशास्त्री हैं। और उससे भी ज्यादा वे नौकरशाह हैं। यदि वे नेता होते तो भ्रष्टाचार पर टूट पड़ने का स्वर्णिम अवसर क्यों गंवा देते? उन्होंने भारत-अमेरिका परमाणु सौदा करवाने के लिए अपनी सरकार खतरे में डाल दी थी (? सुना है भ्रष्टाचार/अनाचार उसमे भी मौजूद था ), लेकिन भ्रष्टाचार पर हमला बोलने के लिए वे कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहते? यदि वे भ्रष्टाचार पर हमला बोलेंगे तो प्रकारांतर से देश के नेताओं पर ही हमला बोलेंगे। ये वे ही नेता हैं, जिन्होंने एक अ-नेता को देश की गद्दी पर बिठाया और टिकाया हुआ है? भला, सेठों को अपने मुनीम से डरने की क्या जरूरत? पक्ष व विपक्ष दोनों चाहते हैं कि मनमोहन टिके रहें। यदि वे रहेंगे तो नेताओं का कोई बाल बांका नहीं कर सकता। भ्रष्टाचार बढ़ता चला जाएगा, जांच कमेटियां भत्ते खाती रहेंगी और सरकार इतनी बदनाम हो जाएगी कि बिना कुछ किए हुए ही सांपनाथ की जगह नागनाथ आ बैठेंगे। विपक्ष की भी चांदी है। दोनों हाथों में लड्डू हैं।

भ्रष्टाचार का उन्मूलन यदि कोई करेगा तो वह भारत की जनता ही करेगी। ऐसी जनता जो नेताओं और राजनीतिक दलों के काबू से बाहर है। जो स्वयं भ्रष्ट नहीं है और भ्रष्टाचार जिसके लिए सिर्फ खबर नहीं है। "जन-लोकपाल विधेयक" से हमारी यही आशा है।

आखिर "लोकपाल विधेयक"  और "जन-लोकपाल विधेयक" ये है क्या....

"लोकपाल का अर्थ है, ऐसे पद की स्थापना जो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायाधीश से लेकर छोटे से छोटे सरकारी कर्मचारी के भ्रष्टाचार को पकड़े और उसे सजा दिलवाए।"

"लोकपाल विधेयक" -  ये सरकारी विधेयक मूलत: सरकारी विधिवेत्ताओं और अफसरों ने तैयार किया है, जबकि जनलोकपाल विधेयक की तैयारी में देश के जाने-माने विधिवेत्ताओं, समाजसेवियों, जननेताओं, सेवानिवृत्त अफसरों और न्यायाधीशों ने दिमाग खपाया है। यदि सरकारी भ्रष्टाचार को खत्म करने का विधेयक खुद सरकार बनाएगी तो वह खुद पर कितनी सख्ती करेगी? अपनी खाल बचाने के लिए वह हजार रास्ते निकाल लेगी। पिछले 42 साल तो उसने यूं ही काट दिए और अब जो विधेयक वह ला रही है, वह भी काफी लूला-लंगड़ा है। सरकारी विधेयक में प्रधानमंत्री के प्रतिरक्षा और विदेशी मामलों संबंधी कामों को नहीं छुआ जा सकता है यानी बोफोर्स जैसा कोई कांड हो जाए तो उस पर मुकदमा तक नहीं चल सकता। सांसदों के विरुद्ध यदि भ्रष्टाचार के आरोप लगें तो उनकी जांच लोकसभा अध्यक्ष की अनुमति के बिना नहीं हो सकती। किसी मंत्री या सत्तारूढ़ दल के सांसद के विरुद्ध क्या किसी अध्यक्ष की अनुमति प्राप्त करना सरल है? 

"1967 से लेकर अब तक बनी लगभग सभी संसदों में इस बिल को गाजर की तरह लटकाया गया, लेकिन यह अब भी दूर का ढोल बना हुआ है।"

इसके अलावा सरकारी लोकपाल का नौकरशाही से कोई लेना-देना नहीं होगा। नौकरशाहों का भ्रष्टाचार नेताओं के भ्रष्टाचार से अधिक सूक्ष्म और अधिक व्यापक है, लेकिन उसे पकड़ने के लिए वही पुरानी व्यवस्था कायम रहेगी यानी भ्रष्ट अफसर का विभाग ही उसकी जांच करेगा और यह जांच भी उच्च अफसर की अनुमति के बिना शुरू नहीं होगी। सीवीसी जिस तरह की नखदंतहीन संस्था है, लगभग वैसी ही संस्था लोकपाल के रूप में खड़ी हो जाएगी। सरकारी लोकपाल विधेयक में लोकपाल की नियुक्ति में भी उसी धांधली का राजमार्ग खुला हुआ है, जो थॉमस के मामले में हुई थी। तीन सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को लोकपाल बनाया जाएगा, लेकिन अगर किसी के नाम पर मतभेद हुआ तो चयन समिति क्या करेगी? समिति में बैठे प्रधानमंत्री और उनके साथी अपने मनपसंद लोगों को देश पर थोप सकेंगे। सरकारी लोकपाल जिस पद्धति से चुना जाएगा, उसी पद्धति से वह काम करेगा। वह अपने कृपानिधानों पर आंच क्यों आने देगा? यूं भी उसे सजा देने या सीधी शिकायतों पर जांच करने का अधिकार नहीं होगा।

"जन-लोकपाल विधेयक" -  इस वैकल्पिक विधेयक में सीबीआई और निगरानी आयोग को लोकपाल के मातहत रखा गया है और लोकपाल को शक्तिसंपन्न बनाया गया है। निश्चित समय में भ्रष्टाचार की जांच करना और दोषियों को दंडित करना इस जनलोकपाल का काम होगा। इस काम के लिए उसे और उसके सहयोगियों को किसी की अनुमति की जरूरत नहीं होगी। वह पूर्ण स्वायत्त होगा। लोकपाल की नियुक्ति में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री तथा विपक्षी नेताओं का कोई हाथ नहीं होगा। यह लोकपाल अपने जाल में नेताओं के साथ-साथ अफसरों और जजों को भी समेट सकेगा। इस वैकल्पिक विधेयक में भी कई कमियां और अंतर्विरोध हैं, लेकिन इसमें नए-नए सुझाव रोज जोड़े जा रहे हैं। वास्तव में इस प्रक्रिया से सरकार को ही मदद मिलेगी।

इस मुद्दे पर विवाद हो सकता है कि कौन-सा लोकपाल विधेयक पास करने लायक है? सरकार द्वारा प्रस्तावित या आंदोलनकारियों द्वारा प्रस्तावित या इन दोनों से अलग कोई तीसरा भी? लेकिन इस पर क्या विवाद हो सकता है कि लोकपाल कानून शीघ्रतिशीघ्र बनना चाहिए और उस पर अविलंब अमल होना चाहिए।


"लोकपाल विधेयक"  और "जन-लोकपाल विधेयक"तुलना

1. "लोकपाल विधेयक" के मुताबिक लोकपाल एक सलाहकार निकाय हो जो कि किसी मामले की जांच के बाद अपनी रिपोर्ट उपयुक्त अधिकारी को आगे की कार्रवाई के लिए सौंप दे। वहीं "जन-लोकपाल विधेयक" के मुताबिक लोकपाल को किसी मामले की जांच के बाद दंडात्मक कार्रवाई शुरू करने का अधिकार होगा। उसके पास किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई का निर्देश देने का भी अधिकार होगा।

2. "लोकपाल विधेयक" के मुताबिक लोकपाल के पास किसी मामले की जांच की खुद पहल करने का अधिकार नहीं होगा और न ही आम लोगों से मिलने वाली भ्रष्टाचार की शिकायतों पर। शिकायत लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा सभापति के पास की जाएगी और जिन शिकायतों को ये आगे बढ़ाएंगे, उन्हीं मामलों की लोकपाल जांच करेगा। "जन-लोकपाल विधेयक" के मुताबिक लोकपाल को किसी भी मामले की जांच शुरू करने का अधिकार होगा और जनता से मिली शिकायतों की वह सीधी जांच कर सकता है।

3. "लोकपाल विधेयक" के मुताबिक लोकपाल के पास पुलिस की शक्ति नहीं होगी इसलिए वह किसी मामले में एफआईआर दर्ज नहीं कर सकता है। "जन-लोकपाल विधेयक" के मुताबिक लोकपाल को किसी मामले में एफआईआर दर्ज करने, आपराधिक जांच करने और अभियोजन का अधिकार होगा।

4. "लोकपाल विधेयक" के मुताबिक सीबीआई की भूमिका के बारे में अभी स्पष्ट नहीं है। वहीं "जन-लोकपाल विधेयक" के मुताबिक सीबीआई को लोकपाल में समाहित कर दिया जाए क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ही प्रभावी और स्वतंत्र संस्था होनी चाहिए।

5. "लोकपाल विधेयक" के मुताबिक लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में केवल सांसद, मंत्री और प्रधानमंत्री आएंगे, न कि अधिकारी। लेकिन"जन-लोकपाल विधेयक" के मुताबिक लोकपाल के दायरे में नेता, अधिकारी और न्यायाधीश सभी होंगे। केंद्रीय सतर्कता आयोग और अन्य सतर्कता एजेंसियों को भी लोकपाल में समाहित करने की वकालत की गई है।

6. "लोकपाल विधेयक" के मुताबिक विदेश, सुरक्षा और रक्षा से संबंधित सौदों में लोकपाल को प्रधानमंत्री के खिलाफ जांच का अधिकार नहीं होना चाहिए। वहीं "जन-लोकपाल विधेयक" के मुताबिक लोकपाल के अधिकारों की कोई सीमा नहीं होगी।

7. "लोकपाल विधेयक" के मुताबिक अगर किसी शिकायतकर्ता की शिकायत झूठी पाई गई तो लोकपाल को उसे जेल भेजने का अधिकार होगा। लेकिन "जन-लोकपाल विधेयक" के मुताबिक झूठे शिकायतकर्ता पर वित्तीय दंड लगाया जाए।

8. "लोकपाल विधेयक" भ्रष्टाचार में दोषी पाए जाने पर कम से कम छह महीने और अधिक से अधिक 7 साल की वर्तमान व्यवस्था के पक्ष में है। जबकि "जन-लोकपाल विधेयक" के मुताबिक कम से कम पांच साल और अधिकतम आजीवन कारावास के दंड की व्यवस्था है।


अब ये हमे सोचना है कि हम क्या चाहते है....मेरे विचार से "जन-लोकपाल विधेयक" की दंड की व्यवस्था मे ये भी जोडा जा सकता है.... भ्रष्टाचार में दोषी पाए जाने पर - आरोपी और उसके पूरे परिवार के सामजिक जीवन पर सजा कि अवधि तक प्रतिबन्ध लगा देना चाहिये....आरोपी शायद सजा से ना डरे पर  परिवार के सामजिक जीवन पर सजा कि अवधि तक प्रतिबन्ध से जरुर डरेगा।

खैर इस पर हम सब का अपना अपना नजरिया हो सकता है....फिलहाल जरुरत जागने की है और जरुरत है उस आवाज़ के साथ खडा होने कि जिसने अपना जीवन हम सबके लिये दाव पर लगा दिया है। जो आज तक ना कर सके वो अब करने का वक्त आ गया है....

"जय हिन्द"





साभार : स्रोत

Wednesday, November 24, 2010

हिन्दी मे लिखने का प्रथम प्रयास - "भ्रष्टाचार के खिलाफ़ मेरी लड़ाई"


हिन्दी मे लिखने का प्रथम प्रयास -
विगत काफ़ी समय से श्री विवेक रस्तोगी जी चाह्ते थे कि हमे भी हिन्दी ब्लॉग में शामिल होना चाहिए, सोचा शुरुआत करे। काफ़ी विचार करने के बाद मैंने पहले विषय के रूप में "भ्रष्टाचार" का चयन किया।

भ्रष्टाचार, मैं इसे "नैतिक पतन कहना ज्यादा उचित समझता हू यह हमारे-आपके, हम सबके घरो से शुरू होता है, उदाहरणार्थ अगर हमारा बच्चा नहीं पढ़ रहा है तो हम कहते हैं, अगर आप समय पर अपना काम खत्म करेगे तो आप को कुछ खिलौना या chocklet मिल सकती है....इस तरह हम उसे जाने अनजाने नैतिक पतन का पाठ सिखा रहे होते है। बच्चा तो यही समझता है कि ये सब सही है....और धीरे धीरे ये उसकी आदत मे जाता है....और जब वह बड़ा होता है तो वो भी यही सब करता है और बाद मै हम इसी भ्रष्टाचार को ले कर परेशान होते है।

इस विषय पर मुझे अपने जीवन की एक घटना याद आती है, बात करीब करीब 12-13 साल पुरानी है....मेरा परिवार उज्जैन से सतना शिप्रा द्रुतगामी रेलगड़ी से जा रहा था....यह रेलगड़ी उज्जैन स्टेशन से रात करीब 9:30 पर जाती थी....हम लोग समय पर स्टेशन पहु्च गये....भीड कफ़ी होने से आरक्षण दो अलग अलग शयनयान मे मिला था....सो मैने माताजी और दो बहनो को एक शयनयान मै पहुचाया और पिताजी के साथ दुसरे शनयान मे गया....हमने टिकट कलेक्टर से अनुरोध किया कि मेरे पिताजी हृदय रोग से पिडित है, अतएव अगर उन्हे भी माताजी और दो बहनो के साथ वाले शनयान मे भेज दिया जाय....इस पर वो सज्जन बडे ही रोब से बोले की बहुत भीड है....हो नही सकता....मैने उनसे अनुरोध किया कि कम से कम एक बार सूची तो देखे....शायद कोइ अकेला यात्री उस शनयान मे हो जिससे हम सीट विनिमय कर सकते है....तब तक पर वो सज्जन हमारी मजबूरी समझ गये थे....सो बोले 100 लगेगे....मैंने पूछा किस लिये....बोले सब देते है....यही तरीका है....मैने बोल मै तो नही दूगा....बस इतना सुनना था वो कफ़ी तैश मे गये और मेरे पिताजी को बोले "जा नही बदलता सीट"....मैने कहा नही बदलना तो कोइ बात नही....पर बात तो तमीज़ से किजिये....ये सुन कर वो और गुस्सा हो गये....और आनाप शानाप बोलने लगे....अब बारी हमारी थी....सो हम पहले शनयान से बाहर आये और फ़िर उनको भी नीचे आने को कहा....ये सारा वाक्या उज्जैन रेल स्टेशन पर स्टेशन प्रबन्धक के कमरे के सामने चल रहा था....वो बोले क्यो आये....सो हमने उन्हे हाथ पकड कर नीचे खीचा....वो कफ़ी गुस्से मे थे....नीचे आने पर मैने उन्हे बताया कि उन्हे आम आदमी से इस तरह बात करने का हक नही है तो वो लगे हमे धमकाने....पर हम भी सोच चुके थे कि आज इन महाशय को आम आदमी के बारे मे समझना ही परेगा....नीचे आने पर पता चला कि वो पिये हुए भी है....बस हमने भी हन्गामा शुरु कर दिया....सब से पहले तो उन्हे बोला कि वो मेरे पिताजी से माफ़ी मागे....वो नही माने....तब तक स्टेशन प्रबंधक हन्गामा देख कर वहा गये थे....बोले क्या हो रहा है....मैने बोल कि ये सज्जन ड्यूटी पर मदपान किये हुए है और आनाप शानाप बोल रहे है....साथ मे रिश्वत के लिए पूछ रहे है....मैने स्टेशन प्रबंधक से शिकायत पुस्तिका मागी....और कहा कि आप अभी इनके खून का नमूना लेने का प्रबन्ध करे....पहले तो वो आना कानी करने लगे....पर जब वहा भीड ज्यादा हो गयी तो मुझे एक तरफ़ ले जा कर बोले की अगर मै लिखित शिकायत दूगा तो उसकी नौकरी पर बन आयेगी....मैंने कहा मुझे परवाह नहीं है, वह ड्यूटी पर नशे में है और अभद्र सुलूक कर रहा है....तब तक 3-4 और साथी टी. टी. मेरे पास आगये....उन्हे सारी बात पता चल चुकी थी....आते ही उनमे से एक ने मेरे हाथ मे टिकट दिया....जिसमे उन्होने मेरे पिताजी की सीट बदल कर बाकी परिवार के साथ कर दी थी....बोले अब जाने भी दो....मैने बोला नही पहले उसे बोलो की मेरे पिताजी से दोनो हाथ जोड कर माफ़ी मागे....उन साथी टी. टी. ने जाकर उसे समझाया और आख़िरकार उसने हाथ जोड कर माफ़ी मागी भी....क्योंकि मैंने तय किया था कि रिश्वत  नही दूगा इस लिये अपनी बात पर अडा रहा और आख़िरकार उसे झुकना पडा, पर फिर भी आज भी मन मे ये मलाल है कि काश उस दिन मैने लिखित शिकायत की होती....जो कि हर एक नागरिक का फ़र्ज़ है तो कही कोइ तो शुरुआत होती....इसके बाद और भी मोके आये जब मुझसे रिश्वत की माग की गयी....जैसे मेरे पिताजी के निधन के बाद माताजी के नाम पेंशन स्थानांतरित करने के लिये राज्य - कोष निधि लिपक ने 5000 मागे....मै उसे हा बोल कर सीधा जाकर उसके अधिकारी को उसकी मेज पर लाया....और दुबारा बोला कि फ़ाइल सामने है तो पास क्यो नही करते....बेचारे ने मजबूरी मे आदेश जारी किये। लेकिन समय ने एक दिन हमे भी झुका दिया....


पर लगता है कि किसी ना किसी को कही कही से शुरुआत करनी ही होगी....तो क्यो ना हिन्दी ब्लॉग के माध्यम से हम लोग एक स्वस्थ अभियान की शुरुआत करे....हम विभिन्न-विभिन्न लेखो के माध्यम से लोगो को जागरुक करे.... तो शायद कोइ बात बने। मै जानता हू कि ये आसान नही है पर कोशिश करने मे क्या हर्ज़ है?